महाकुंभ: आस्था, अव्यवस्था और राजनीतिक प्रभाव

महाकुंभ: आस्था, अव्यवस्था और राजनीतिक प्रभाव

**महाकुंभ: आस्था, अव्यवस्था और राजनीतिक प्रभाव**

कुंभ जैसे धार्मिक आयोजन हमारे संस्कृति और आस्था के प्रतीक हैं, लेकिन जब इनमें भेदभाव, प्रशासनिक अव्यवस्था और वीआईपी संस्कृति हावी हो जाती है, तो साधारण व्यक्ति के लिए यह एक परीक्षा बन जाती है। आज की स्थिति को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि एक साधारण व्यक्ति का कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया है। वीआईपी कोटा वाले लोग विशेष सुविधाओं के साथ प्रवेश कर रहे हैं, जबकि आम श्रद्धालु अव्यवस्था से जूझ रहा है। विदेश से आए लोग सुखद यात्रा करके वापस जा रहे हैं, और अपने ही देश के नागरिकों की दशा विचारणीय बनी हुई है।

**"घर का लाडिका गोही चाटे, मामा करत बियारी"**— यह कहावत यहाँ पूरी तरह सटीक बैठती है। हमारे ही देश के आम नागरिक, जो पूरे साल देश की अर्थव्यवस्था को मजबूती देते हैं, वे जब अपनी धार्मिक यात्राओं में परेशान होते हैं, तो यह व्यवस्था पर एक गंभीर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।

### **बेहतर प्रबंधन का समाधान क्या हो सकता था?**
यदि इस कुंभ की व्यवस्था को प्रभावी ढंग से नियंत्रित करना था, तो पूरे कुंभ को एक समान **विशेष दिवसों** में विभाजित करना अनिवार्य था।
1. **राज्यवार और जिलावार स्लॉटिंग:** प्रत्येक राज्य के 7 जिलों के लिए निश्चित तिथियाँ तय की जातीं, जिससे भीड़ नियंत्रित होती।
2. **डिजिटल पंजीकरण प्रणाली:** यात्रियों के लिए एक कुंभ एंट्री पोर्टल बनाकर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की सुविधा दी जाती, जिससे भीड़ को चरणबद्ध रूप से नियंत्रित किया जा सकता था।
3. **विशेष वीआईपी और आम श्रद्धालु के लिए अलग-अलग व्यवस्था:** समय और मार्गों को अलग-अलग निर्धारित किया जाता, ताकि आम जनता को असुविधा न हो।
4. **प्रवेश और निकास नियंत्रण:** स्नान और दर्शन के लिए समय स्लॉट तय किए जाते, जिससे अव्यवस्था से बचा जा सकता था।

### **राजनीतिक परिवर्तन का संकेत?**
यह महाकुंभ कहीं देश की राजनीति परिवर्तन का कारण न बन जाए, यह भी विचारणीय है।
- इतिहास गवाह है कि ऐसे बड़े धार्मिक आयोजनों के दौरान सरकारों की प्रशासनिक क्षमता की परीक्षा होती है।
- यदि श्रद्धालुओं को अत्यधिक असुविधा हुई, तो इसका प्रभाव सत्ता परिवर्तन तक हो सकता है।
- सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर अव्यवस्था की तस्वीरें वायरल होने से चुनावी समीकरण भी प्रभावित हो सकते हैं।

इसलिए, अगर इसे केवल एक धार्मिक आयोजन के बजाय **व्यवस्थित और समावेशी आयोजन** बनाया जाता, तो न केवल श्रद्धालु संतुष्ट होते बल्कि प्रशासन की भी सराहना होती। अब देखना होगा कि इसका आगे क्या प्रभाव पड़ता है!

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