ईश्वर की माया — प्रारब्ध का खेल
भाव : अरविंद द्विवेदी
भाषा एवं पिरोया : अभिलाष पाठक
छोटी सी रचना और पीड़ा..........
कभी जो थे ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया,
धन, ज्ञान, वैभव – तीनों के धनिया।
राजसिंहासन, यज्ञ और ज्ञान,
इनसे ही चलता था सारा विधान।
ईश्वर ने देखा, मुस्काया धीरे,
कर्मों की गुत्थी गहराई घीरे।
कहा — अब पलट दूँ दृश्य ये सारा,
देखूँ कौन निभाए जीवन प्यारा।
कल जो ब्राह्मण, आज दलित बने,
पर सुख वही — वही हँसी तने।
ईश्वर की माया का यह कमाल,
सुख का सागर वही निहाल।
और जो कल थे पीड़ित, बेसहारे,
आज बने ब्राह्मण, क्षत्रिय प्यारे।
पर दुख वही — वही मन भारी,
प्रारब्ध की लेखा नहीं सुधारी।
जात बदल ली, नाम नया पाया,
पर भाग्य का लेख न हटाया।
ईश्वर की माया — अद्भुत खेल,
जहाँ कर्म ही देते मेल।
कभी ये ऊपर, कभी वो नीचे,
माया नाचे, समय सजीले।
कल जो नीचे, आज भी वही,
कल जो ऊपर, आज भी सही।
कभी थे पूजक, अब पूजे जाते,
कभी थे नीचे, अब ऊपर आते।
पर सुख-दुख का मूल नहीं बदलता,
प्रारब्ध का चक्र नहीं मचलता।
ईश्वर हँसते, बोले बस इतना —
जाति नहीं, कर्म ही है सत्यना।
क्योंकि हर रूप में वही कथा है,
सुख-दुख का संग — यही व्यथा है।
भावार्थ :
ईश्वर की माया में कोई छोटा नहीं, कोई बड़ा नहीं —
बस कर्मों की अदला-बदली है।
कल का ब्राह्मण आज दलित होकर भी सुखी है,
और कल का दलित आज ऊँचा होकर भी दुखी है।